विलुप्त होने की कगार पर धान की देशी किस्में

वैज्ञानिकों का कहना है कि किसान अब देशी प्रजातियों की धान की खेती तकरीबन छोड़ चुके हैं और किसान बाजार में उपलब्ध बीज पर निर्भर हैं. धान की पुरानी प्रजातियां तेज सुगंध, स्वाद व पोषण से भरपूर हुआ करती थीं, जिस में आयरन व जिंक प्रचुर मात्रा में होता था.
धान की देशी किस्में सैकड़ों सालों से खुद की रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करते हुए जलवायु परिवर्तन के विपरीत हालात से लड़ते हुए तैयार हुई थीं. इस वजह से इन सभी धान की पुरानी प्रजातियों में बाढ़ और सूखा से लड़ने की क्षमता थी, परंतु जहां नई प्रजातियां 6-7 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देती हैं, वहीं धान की पुरानी प्रजातियों की उपज केवल 3-4 क्विंटल प्रति एकड़ थी, जो कि बढ़ती हुई आबादी का पेट भरने के लिए काफी नहीं थी. धान की देशी किस्मों को उपजाने में खादपानी ज्यादा नहीं लगता था.

देशी धान की खेती – फाइल फोटो

देशी प्रजातियों की धान की कुछ किस्में कम बारिश वाले क्षेत्र में किसान लगाते हैं, जो कि केवल 60 दिनों में ही तैयार हो जाती थीं. इस में सेलहा व साठी प्रमुख किस्में हैं. करगी, कुंआरी, अगहनी, बस्ती का काला नमक, काला जीरा, जूही बंगाल, कनक जीरा, धनिया और मोती बादाम, काला भात, नामचुनिया, दुबराज, बादशाह पसंद, शक्कर चीनी, विष्णु पराग, जिरिंग सांभा, लालमनी, सोना चूर्ण, तुलसी मंजरी, आदमचीनी, गोविंद भोग, विष्णु भोग, मोहन भोग, बादशाह भोग, साठी, कतरनी, मिर्चा, नगपुरिया, कनकजीर, सीता सुंदरी, कलमदान, जवा फूल, चिन्नावर आदि जैसी धान की लुप्तप्राय: प्रजातियां हैं.

इन सभी किस्मों में से करगी धान की किस्म का संरक्षण अभी तक विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डा. आरएस सेंगर और शोध छात्र अभिषेक सिंह के द्वारा किया गया है. कृषि विश्वविद्यालय के शोध छात्र अभिषेक सिंह और

डा. आरएस सेंगर ने करगी धान की प्रजाति को जौनपुर जिले के मछलीशहरपौहा से संकलित कर उस के बीज को राष्ट्रीय पादप आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो, नई दिल्ली (एनबीपीजीआर) में संरक्षण के लिए बीज बैंक में संरक्षित करवाया है.

कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति आरके मित्तल का कहना है कि किसानों के हित में विलुप्त हो रही प्रजातियों का संरक्षण बहुत जरूरी है. इस से नई प्रजाति विकसित करने में सहायता मिलती है. देश में जर्मप्लाज्म को जीन बैंक में सुरक्षित एवं संरक्षित करने से भविष्य के लिए लाभकारी रहता है. कृषि विश्वविद्यालय का प्रयास है कि किसान हित में सराहनीय कदम उठाया जाए.

निदेशक अनुसंधान, कृषि विश्वविद्यालय के डा. टीपी सिंह का कहना है कि विलुप्त

हो रही प्रजातियों को खोज कर कृषि विश्वविद्यालय जीन बैंक में संरक्षित करवाएगा.

भविष्य में विलुप्त हो रही इस प्रजाति को बीज बैंक में संरक्षित होने से इस को बचाया जा सकेगा. इस के जीन को ट्रांसफर कर वैज्ञानिक अच्छी गुणवत्ता वाली धान को विकसित करने का काम कर सकेंगे.

करगी धान की विशेषताएं

फसल की अवधि – 120 दिन

उत्पादन-अनुमानित उपज – 2.1 क्विंटल प्रति एकड़

  • पौधे की ऊंचाई – 90-95 सैंटीमीटर
  • पैनिकिल की लंबाई – 24 सैंटीमीटर
  • झंडे के पत्ते की लंबाई – 34 सैंटीमीटर
  • भूसी का रंग – हलका काला
  • दाने का रंग – हलका लाल
  • उच्च अंकुरण दर 2-5 दिन, 88 फीसदी अंकुरण दर
  • कम मात्रा में आवश्यक उर्वरक, कीटनाशक

पोषक तत्त्वों की मात्रा

  • कैल्शियम – 648.9 मिलीग्राम/किलोग्राम
  • मैग्निसम – 1526 मिलीग्राम/किलोग्राम
  • आयरन – 966 मिलीग्राम/किलोग्राम
  • मैग्नीशियम – 21.78 मिलीग्राम/किलोग्राम
  • कौपर – 19.45 मिलीग्राम/किलोग्राम
  • एल्युमिनियम – 220.4 मिलीग्राम/किलोग्राम

वैज्ञानिकों ने क्या किया काम

देशी धान के संरक्षण को ले कर नैशनल ब्यूरो औफ प्लांट जैनेटिक रिसोर्सेज, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों ने देशी बासमती, जसवा, मंसूरी, बिरनफूल, साद सरना, कुकुर?ाली, काला नयना, फूल पकरी, काला बुधनी, देसी मंसूरी, सफेद सुंदरी, चनाचूर, कैमा समेत 18 प्रजाति के धान को नैशनल जीन बैंक में संरक्षित किया गया है.

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